Public International Law
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1. अंतर्राष्ट्रीय विधि के विधिमान्य स्रोत कौन-कौन से हैं? व्याख्या करें
What are the recognised
sources of international law ? explain.
अन्तर्राष्ट्रीय विधि,
जिसे "राष्ट्रों की विधि " के रूप में भी जाना जाता है, ऐसे नियमों
का एक निकाय है जो एक दूसरे के साथ अपने
संबंधों में संप्रभु
राज्यों के आचरण को नियंत्रित करते है । अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्रोतों से तात्पर्य कानून को
विकसित करने वाले तत्वों से है। अर्थात जिनसे अन्तर्राष्ट्रीय विधि का जन्म हुआ है , अन्तर्राष्ट्रीय विधि के
स्रोत कहलाते है |
अंतरराष्ट्रीय विधि
के स्रोत-
अंतरराष्ट्रीय विधि के प्रमुख विधि मान्य स्रोत निम्नलिखित हैं -
1)
सन्धियाँ (Treaties)
2)
रूढ़ियां (Customs)
3)
सभ्य राष्ट्रों
द्वारा मान्यता प्राप्त विधि के सामान्य सिद्धान्त (General Principles of Law
Recognised by Civilized Nation)
4)
न्यायिक विनिश्चय
/निर्णय (Judicial decisions)
5)
विधिवेत्ताओं के
लेख (Writings of jurists)
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायलय के नियम का अनुच्छेद 38(1) अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्रोतों को दो भागों में विभाजित करता है –
§ प्राथमिक स्त्रोत - ( संधियाँ,
रूढ़ियाँ, सभ्य राष्ट्रों
द्वारा मान्यता प्राप्त विधि के सामान्य सिद्धान्त आदि
)
§ द्वितीयक स्त्रोत - ( न्यायिक
निर्णय , विधिवेत्ताओं के लेख आदि
)
( 1 ) सन्धियाँ (Treaties) – वर्तमान
समय में सन्धियाँ अंतर्राष्ट्रीय
विधि की सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत है | सन्धियाँ दो या अधिक प्रभुत्व संपन्न
राज्यों के मध्य अंतर्राष्ट्रीय विधि के अन्य
विषयों के मध्य करार है, जिनके द्वारा वे अपने सम्बन्धों को स्थापित करते
हैं। अंतर्राष्ट्रीय न्यायलय के नियम के अनुच्छेद 38 (1) (क) के अंतर्गत सन्धियों को अंतर्राष्ट्रीय
विधि के प्रथम स्रोत के रूप में मान्यता दी है |
§ वियाना अभिसमय (1969) के अनुच्छेद 2 अनुसार - अंतरराष्ट्रीय संधियां वे करार हैं जिनके द्वारा दो या दो
से अधिक राज्य अंतर्राष्ट्रीय विधि के अंतर्गत आपस में संबंध स्थापित करते हैं।
§ प्रो० श्वार्जन वर्गर के अनुसार - संधियां अंतरराष्ट्रीय विधि के विषयों या राज्यों के
मध्य करार है जिनसे
अंतरराष्ट्रीय विधि के अंतर्गत बाध्यकारी
दायित्व उत्पन्न होते है |
संधियां निम्नलिखित दो प्रकार की हो सकती हैं -
1)
विधि निर्माण करने वाली संधियां ( law making treaties)
2)
संविदात्मक संधियां (treaty
contract)
(1) विधि निर्माण करने वाली संधियां (law making
treaties): विधि निर्माण करने वाली संधियों के प्रावधान अंतर्राष्ट्रीय विधि के प्रत्यक्ष स्रोत है। इनके माध्यम से बदलाते समय के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय विधि
में परिवर्तन किया जा सकता है तथा राष्ट्रों के मध्य नियमों को निश्चित किया जा सकता है
| अंतर्राष्ट्रीय विधि
में
विधि निर्माण करने वाली संधियों
का वही स्थान है जो राष्ट्रीय विधि में विधि विधायन का है | अंतर्राष्ट्रीय संधियां तभी सार्वभौमिक सिद्धांतों का प्रतिपादन कर
सकती है जब आवश्यक राष्ट्रों (वीटो का अधिकार रखने वाले –
अमेरिका,चीन,रूस , ब्रिटेन
तथा फ़्रांस ) का समर्थन संधियों को प्राप्त हो |
विधि निर्माण संधियां भी निम्नलिखित दो प्रकार की होती है –
i.
वे संधियां जो सार्वभौमिक अंतर्राष्ट्रीय
विधि का निर्माण करती है | जैसे - संयुक्त राष्ट्र चार्टर ।
ii.
सामान्य सिद्धांतों का निर्माण करने वाली
अंतरराष्ट्रीय संधियां |
जैसे - इन संधियों में वेस्टफालिया की संधि(1948),1899 तथा 1907 के
हेग अधिसमय ,जेनेवा अभिसमय ,वियना अभिसमय इत्यादि
(2) संविदात्मक संधियां (treaty contract)- विधि निर्माण करने वाली संधियां सार्वभौमिक होती है
जबकि संविदात्मक
संधियां दो या अधिक राज्यों के मध्य होती है | इस प्रकार की संधियों के प्रावधान इस संविदा या करार के पक्षकारों पर बाध्य होते है | ये संधियां प्रथागत
नियम के विकास से सम्बंधित
सिद्धांतों को लागू करके अन्तर्राष्ट्रीय
विधि के निर्माण में सहायता
करती है |
(2) रूढ़ियां (Customs) –
रूढ़ियां अन्तर्राष्ट्रीय
विधि का मौलिक स्रोत होने के साथ-साथ इसका प्राचीनतम स्रोत भी है तथा किसी समय यह स्रोतों
में सबसे अधिक महत्वपूर्ण था, क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अधिकतर नियम रूढ़िजन्य
(Customary) नियमों से ही निर्मित होता था। अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के स्टैट्यूट के अनुच्छेद
(38) के परिच्छेद (1) (ख) अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय
रूढ़ि विधि के रूप में स्वीकृत सामान्य प्रथा का साक्ष्य है।
ओपेनहाइम के अनुसार - “रूढ़ि निश्चित कार्य को करने का स्पष्ट तथा निरन्तर स्वभाव है, जो इस विचार के अधीन विकसित हुआ है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार ये कार्य बाध्यकर हैं
अक्सर रूढ़ि
तथा प्रथा शब्द पर्यायवाची के रूप में प्रयोग
किया जाता है लेकिन दोनो में अंतर है प्रथा(usage)
वास्तव में रूढ़ि(Custom) की प्रारंभिक अवस्था है। प्रथाए वे आदतें
या व्यवहार है जो राज्यों द्वारा
बार-बार प्रयोग में लाए गए हैं।
स्टार्क के अनुसार
- जहां रूढ़ि
प्रारंभ होती हैं वही प्रथाएं समाप्त होती है अर्थात प्रथाएं
रूढ़ियों में विलय हो जाती हैं |
· प्रथाएं ऐसे वह अंतरराष्ट्रीय व्यवहार है जिन्हें अभी विधि का बल प्राप्त नहीं हो पाया है,
· प्रथाएं आपस में परस्पर विरोधी हो सकती हैं परंतु रूढ़ियां नहीं,
·
ऐसा हमेशा जरूरी नहीं की रूढ़ि में पूर्व प्रथा का अस्तित्व होता हो,
·
कुछ मामलों में प्रथाएं रूढ़ियां बन जाती है कुछ
में नहीं, कभी-कभी संधियों से भी रूढ़ियों का जन्म
होता है।
रूढ़ियों
को दो भागों में बांटा जा सकता है –
o
सार्वभौमिक रूढ़िगत नियम - वे नियम होते
हैं, जो सभी राज्यों पर बाध्यकारी होते हैं, जैसे राजनयिक
सम्बन्धों के नियम या समुद्रिक
नियम ।
o
विशिष्ट रूढ़िगत नियम या स्थानीय रूढ़िगत नियम
- वे
नियम होते हैं, जो केवल दो राज्यों पर बाध्यकारी होते हैं।
(3) सभ्य राष्ट्रों द्वारा मान्यता
प्राप्त विधि के सामान्य सिद्धान्त (General Principles of Law Recognised by
Civilized Nation)-
अन्तर्राष्ट्रीय रूढ़ियों और सन्धियों के अतिरिक्त विधि के सामान्य सिद्धान्त भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के प्रमुख स्रोत हैं। सभ्य राष्ट्रों के द्वारा मान्यता प्राप्त विधि के सामान्य सिद्धान्त से अभिप्राय उन सिद्धांतों से है , जो विश्व समुदाय के अधिकतर या सभी राज्यों द्वारा अपने राष्ट्रीय विधि के विनियमन में प्रयोग में लाये जाते है तथा यह अपने विकसित होने के करण अन्तर्राष्ट्रीय विधि में भी प्रयोग किये जाते है
इस प्रकार सामान्य राष्ट्रीय
विधि के सिद्धान्त को अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा लागू किया जा सकता है। ऐसे नियमों
को निर्णय के लिए उस समय प्रयोग में लाया जाता है, जब अन्य स्त्रोत अर्थात रूढ़ि
और सन्धियाँ अनुपयोगी सिद्ध हो जाती हैं।
§ संयुक्त
राष्ट्र बनाम स्कूनर के वाद में - न्यायाधीश स्टोरी ने दास प्रथा के परीक्षण में कहा कि व्यक्तियों से सम्बद्ध अधिकार
एवं न्याय के सामान्य सिद्धान्तों पर सर्वप्रथम अन्तर्राष्ट्रीय कानून को प्रवर्तित
किया जाना चाहिये।
§ म्यूज जल के मार्ग में परिवर्तन संबंधी वाद - अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने म्यूज(meuse) जल के मार्ग में परिवर्तन के संबंध में राष्ट्रों की विधि के प्रचलित नियमों ,प्राड्न्याय (Res judicata)और विबन्धन(Estoppel ) के नियमों का प्रयोग किया है।
(4) न्यायिक विनिश्चय/निर्णय (Judicial decisions) –
न्यायिक विनिश्चय अन्तर्राष्ट्रीय विधि के गौण अथवा सहायक स्रोत माने जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि न्यायालय के निर्णय किसी
पूर्ण निर्णय (precedent) का सृजन नहीं करते। न्यायिक विनिश्चयों का किसी भी विवाद
के पक्षकारों के अतिरिक्त इनकी कोई बाध्यता नहीं होती”| “न्यायिक विनिश्चय” शीर्षक के अन्तर्गत निम्नलिखित
न्यायालयों के विनिश्चयों को शामिल किया जाता है-
· अन्तर्राष्ट्रीय
न्यायालय (International Court of Justice) – आज के समय में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय
न्यायिक अधिकरण है। तथा इसके निर्णय केवल मामले के पक्षकारों पर ही बाध्यकारी होते हैं।
ये अन्तर्राष्ट्रीय विधि के बाध्यकारी नियम को सृजित नहीं करते। न्यायालय के स्टेट्यूट
के अनुच्छेद 59 में यह स्पष्ट
किया गया है कि न्यायालय के विनिश्चय, विवाद के पक्षकारों के अतिरिक्त किसी अन्य पर
बाध्यकर नहीं होंगे।
· अन्तर्राष्ट्रीय
अधिकरणों के पंचाट (Awards of International Tribunals) –
अन्तर्राष्ट्रीय अधिकरणों, जैसे स्थायी
माध्यस्थम् न्यायालय (Permanent Court of Arbitration) तथा अन्य अधिकरणों तथा ब्रिटिश-अमेरिकी मिश्रित दावा अधिकरण
( British American Mixed Claims Tribunal) एवं अन्य अधिकरणों के पंचाटों (awards) ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विकास में
काफी योगदान दिया है।
· राष्ट्रीय
न्यायालयों के विनिश्चय (Decisions of the Municipal Courts) –
राष्ट्रीय न्यायालयों के निर्णय अन्तर्राष्ट्रीय
विधि में विशेष महत्व नहीं रखते और इसलिए राष्ट्रीय न्यायालयों के निर्णय को अन्तर्राष्ट्रीय
विधि के स्रोत के रूप में नहीं माना है। किन्तु कई राज्यों के न्यायालयों द्वारा दिये
गये निर्णय यदि एक समान (uniform) होते हैं तो वे अन्तर्राष्ट्रीय विधि के रूढ़िगत
नियम बनने की प्रवृत्ति रखते हैं।
(5) विधिवेत्ताओं के लेख (Writings of jurists) – अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के अनुच्छेद 38(1) (घ) के अनुसार विभिन्न देशों के प्रसिद्ध विधिवेत्ताओं के लेख एवं किताबें अन्तर्राष्ट्रीय विधि के निर्धारण में सहायक होते हैं। इसके अन्तर्गत विधिवेत्ताओं के लेखों को विधि के नियमों का निर्धारण करने के लिए गौण साधन माना गया है।
अत: इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय
विधि के मान्य स्रोत की श्रेणी में नहीं रखा गया है। फिर भी सुयोग्य एवं प्रख्यात विधिवेत्ताओं
के ग्रन्थ व लेख के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों के निर्माण में सहायता
मिलती है। उपरोक्त से स्पष्ट होता है कि सुयोग्य एवं प्रख्यात विधिवेत्ताओं के ग्रन्थ
पर स्वतन्त्र रूप से एक स्रोत की तरह विचारण नहीं किया जायेगा।
निष्कर्ष -
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि संधियाँ, रूढ़ियाँ, सभ्य राष्ट्रों द्वारा मान्यता प्राप्त विधि के सामान्य सिद्धान्त, न्यायिक निर्णय तथा विधिवेत्ताओं
के लेख आदि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के प्रमुख स्त्रोत है जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियम निर्मित करते है | जिनमे कुछ सभी राष्ट्रों पर सार्वभौमिक रूप से
बाध्यकारी होते है तो कुछ विशिष्ट रूप से | इनके अतिरिक्त कुछ विद्वान साम्या तथा
महासभा के संकल्पों को भी अन्तर्राष्ट्रीय
विधि के सहायक स्त्रोत के रूप
में मान्यता देते है लेकिन सामान्यता इनका अत्यधिक महत्त्व नही होता है |