Law of contract -II
Question No.2 प्रत्याभूति की संविदा से आप क्या समझते है ? प्रत्याभूति की संविदा के आवश्यक तत्व क्या है ? प्रत्याभूति की संविदा तथा क्षतिपूर्ति की संविदा में अंतर बताइए |
Answer :- प्रत्याभूति की संविदा ( Contract of Guarantee )
[ Section 126 - 147 ]
परिभाषा - भारतीय संविदा अधिनिमय, 1872 की धारा 126 में प्रत्याभूति की संविदा की परिभाषा दी गई है। इसके अनुसार – “प्रत्याभूति की संविदा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा व्यतिक्रम की दशा में उसके वचन का पालन या उसके दायित्व का निर्वहन करने की संविदा।
अर्थात
प्रत्याभूति की संविदा से अभिप्राय है – “जब कोई व्यक्ति अपने बचाव का पालन न करें, तब उसकी ओर से पालन करने का दायित्व किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपने ऊपर लिया जाना।”
उदाहरण – ‘क’ ‘ख’ से 7000/- रुपये का ऋण लेता है ‘ग’ यह करार करता है या वचन देता है कि यदि ‘क’ ऋण का संदाय करने में असफल रहता है तो वह स्वयं उस ऋण की राशि का संदाय करेगा। यह ग तथा ख के बीच हुई संविदा प्रत्याभूति की संविदा है।
जो व्यक्ति प्रत्याभूति (Guarantee) देता है उसे प्रतिभू ( Surety) तथा जिस व्यक्ति की चूक के बारे में प्रत्याभूति दी जाती है वह मूल ऋणी ( Principal Debtor ) कहा जाता है| जिस व्यक्ति को प्रत्याभूति दी जाती है उसे लेनदार ( Creditor) कहते है |
प्रचलित भाषा में ऐसी संविदाओं को जमानत अथवा गारन्टी की संविदा भी कहा जाता है क्योंकि इनमें अन्य व्यक्ति द्वारा वचन पालन की जमानत अथवा गारन्टी दी जाती है।
जिस संविदा में स्वतन्त्र उत्तरदायित्व विद्यमान होता है , वह प्रत्याभूति की संविदा नही होती है ,
जैसे - क दुकानदार से कहता है कि ख को कुछ समान दे दीजिए | मै आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इसका मूल्य आपको मिल जायेगा | यह एक स्वतन्त्र प्रतिज्ञा है न कि प्रत्यभूति की संविदा |
केस - टेलर बनाम ली ,(1928 )
आवश्यक तत्व (Essential elements)
(i) पक्षकार – प्रत्याभूति की संविदा में तीन पक्षकार होते है-
(क) लेनदार (Creditor);
(ख) मूल ऋणी (Principal debtor); एवं
(ग) प्रतिभू (Surety)।
जो व्यक्ति प्रत्याभूति (Guarantee) देता है उसे प्रतिभू ( Surety) तथा जिस व्यक्ति की चूक के बारे में प्रत्याभूति दी जाती है वह मूल ऋणी ( Principal Debtor ) कहा जाता है| जिस व्यक्ति को प्रत्याभूति दी जाती है उसे लेनदार ( Creditor) कहते है |
‘एच. मोहम्मद खान बनाम आंध्र बैंक लि.’ (ए.आई.आर. 1988 कर्नाटक 73) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रत्याभूति की संविदा में लेनदार, मूल ऋणी व प्रतिभू का अभिव्यक्त रूप से भाग लिया जाना अथवा विवक्षित सम्मति होना आवश्यक है।
(ii) लिखित या मौखिक होना – प्रत्याभूति की संविदा लिखित या मौखिक कैसी भी हो सकती है। मौखिक प्रत्याभूति का भी वही प्रभाव होता है जो लिखित प्रत्याभूति का होता है यह विवक्षित (implied) भी हो सकती है।
एक्सन स्ट्रेंथ लिमिटेड बनाम इंटरनेशनल ग्लास इंजीनियरिंग इन ग्लीन एस ० पी ० ए ० (2003 ) - के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि कोई व्यक्ति मौखिक प्रत्याभूति के अंतर्गत दायी हो सकता है |
(iii) प्रतिफल का होना – प्रत्याभूति की संविदा में प्रतिफल (Consideration) का होना आवश्यक है। परन्तु लेनदार और प्रतिभू के मध्य प्रतिफल का होना आवश्यक नही होता है |
‘रामनारायण बनाम हरी सिंह’ (ए.आई.आर. 1964 राजस्थान 76) के मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रतिफल के बिना की गई प्रत्याभूति की संविदा शून्य होती है।
मुल्ला ने भी अपनी कृति ‘इण्डियन कान्ट्रेक्ट एक्ट’ में यह कहा है कि – (“A contract of guarantee without consideration is void.”)
(iv) मूल ऋण - प्रत्याभूति की संविदा का निर्माण तब तक नही हो सकता जब तक कि मूल ऋण न हो , क्योकि मूल ऋण को सुरक्षित करना ही प्रत्याभूति की संविदा का मुख्य उद्देश्य है |अतः ऋण का वैध एवं प्रवर्तनीय होना आवश्यक है |
काउटस एण्ड कम्पनी बनाम ब्राउन लेकी , ( 1947) - के वाद में प्रश्न यह था कि जब किसी अवयस्क के ऋण के लिए प्रत्याभूति दी जाये तो यदि अवयस्क का ऋण शून्य होता है तो क्या प्रतिभू दायी होगा ? इस वाद में निर्णीत किया गया कि ऐसी स्थिति में प्रतिभू दायी नही होना चाहिए |
(v) दायित्व – प्रत्याभूति की संविदा के लिए विधि द्वारा प्रवर्तनीय दायित्व का होना आवश्यक है। विधि द्वारा प्रवर्तनीय दायित्व के अभाव में प्रत्याभूति की संविदा का गठन नहीं हो सकता।
‘मंजू महादेव बनाम शिवप्पा’ [(1918) 42 बम्बई 444] के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रतिभू अवधि-बाधित ऋण का संदाय करने के लिए आबद्ध नहीं है। क्योंकि ऐसा ऋण अथवा दायित्व विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है।
(A surety is not liable on a guarantee for the payment of a debt which is barred by the law of limitation.)
(vi) संविदा का स्वरूप – प्रत्याभूति की संविदा का स्वरुप तीन प्रकार का है-
(क) मूल ऋणी व लेनदार के बीच सामान्य संविदा;
(ख) लेनदार व प्रतिभू के बीच प्रत्याभूति की संविदा; तथा
(ग) प्रतिभू व मूल ऋणी के बीच क्षतिपूर्ति की संविदा।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मूल ऋणी के ऋण का संदाय करने में असफल रहने पर जब प्रतिभू द्वारा लेनदार को ऋण का संदाय कर दिया जाता है अथवा संदाय का वचनपत्र निष्पादित कर दिया जाता है तब प्रतिभू लेनदार का स्थान ले लेता है।
क्षतिपूर्ति और गारंटी के बीच महत्वपूर्ण अंतर
क्षतिपूर्ति और गारंटी के बीच प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं:
- क्षतिपूर्ति के अनुबंध में, एक पक्ष दूसरे से यह वादा करता है कि वह किसी अन्य पक्ष को हुई क्षतिपूर्ति के लिए क्षतिपूर्ति करेगा, जो कि प्रवर्तक या किसी अन्य व्यक्ति के कार्य के कारण हुआ है। गारंटी के अनुबंध में, एक पक्ष दूसरे पक्ष से एक वादा करता है कि वह दायित्व का भुगतान करेगा या देयता के लिए भुगतान करेगा, तीसरे पक्ष द्वारा डिफ़ॉल्ट के मामले में।
- क्षतिपूर्ति को भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 124 में परिभाषित किया गया है, जबकि धारा 126 में गारंटी को परिभाषित किया गया है।
- क्षतिपूर्ति में, दो पक्ष होते हैं, क्षतिपूर्ति करने वाला और निंदनीय लेकिन गारंटी के अनुबंध में, तीन पक्ष होते हैं जैसे ऋणी, लेनदार, और ज़मानत।
- क्षतिपूर्ति के अनुबंध में indemnifier की देयता प्राथमिक है, जबकि अगर हम गारंटी की देयता की बात करते हैं तो यह गौण है क्योंकि प्राथमिक देयता देनदार की है।
- क्षतिपूर्ति के अनुबंध का उद्देश्य दूसरे पक्ष को नुकसान से बचाने के लिए है। हालांकि, गारंटी के अनुबंध के मामले में, उद्देश्य लेनदार को आश्वस्त करना है कि या तो अनुबंध किया जाएगा, या दायित्व का निर्वहन किया जाएगा।
- क्षतिपूर्ति के अनुबंध में, देयता तब उत्पन्न होती है जब गारंटी के अनुबंध में आकस्मिकता होती है, देयता पहले से मौजूद है।